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Kaula Nath Sampradayam
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श्री गुरु स्तवन
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः |
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ||
ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति पूजामूलं गुरोः पदम् |
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ||
अखंडमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् |
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ||
ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं |
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्षयम् ||
एकं नित्यं विमलं अचलं सर्वधीसाक्षीभूतम् |
भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि || .
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव |
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव ||
दिव्य दर्शन- श्री पञ्च पीठाधिपति कलि कुल नायक कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज (हिमालय पुत्र)
II "श्री कौलान्तक पीठाधीश्वर श्रद्धेय महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज की लघु गाथा" II
कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी के बारे में बताना बहुत ही असंभव कार्य है, ये ठीक ऐसा ही है कि कोई कहे सागर को गागर में भर लाओ, ऐसा कार्य तो केवल कोई बाजीगर या जादूगर ही कर सकता हैं, लेकिन यदि मैं कुछ न कहू तो और भी मूर्खता होगी, अपनी बुद्धि से जो समझ सका वो ही कहने का प्रयास करता हूँ, गलतियों पर आप ध्यान न दे कर मुझे क्षमा करते रहें, ये गाथा शुरू होती है सन1983 से जब श्री कृष्ण जन्माष्टमी का त्यौहार मनाया जा रहा था, संभवतया 23 अगस्त की रात थी, रात के समाप्त होते होते ब्रह्म मुहूर्त में जन्मे करोड़ों साधकों के नयनो के प्रखर सूर्य, "महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज", मानो कोई अद्भुत सा परिवर्तन मौन प्रकृति में कहीं हुआ हो, जिसकी भनक कुछ हिमालय के दिव्य साधकों को लग गयी, जैसे मानो उनको दैव प्रेरणा से कोई महासन्देश प्राप्त हुआ हो, प्रकृति भी शान्त थी, सुबह के अंधकारमय बादलों से प्रकाश की पहली किरणे नीचे झाँकने लगी, जो हिमालय पुत्र के आने की सूचना लिए थी.......
महायोगी जी का धरा पर जन्म मानो नयी प्रभात का सुख
वो दिन भी आम दिनों की तरह ही गुजर गया, लारजी नाम की वो जगह हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिला में है, बस कुछ घरों का छोटा सा गाँव...जहाँ पैदा हुए महायोगी, महायोगी के पैदा होने की सूचना कहा जाता है कि तत्क्षण हिमालय में बैठे "महागुरु कौलान्तक पीठ शिरोमणि प्रातः स्मरणीय श्री सिद्ध सिद्धांत नाथ जी महाराज" को मिल गयी, भारत में स्थित हिमालय के योगियों के प्रताप को कौन नहीं जानता? पीठ शिरोमणि नाथ गुरु, सूर्य योगी होने के कारण बिना भोजन पानी के 22 वर्ष की आयु से हिमालय में स्थित "खण्डाधार" नामक पर्वत श्रृंखला में कही गुफा में समाधिस्थ थे, वे कई वर्षों से मानव जाती से दूर रहे, बिलकुल अकेले समाधिस्थ, यही परम सिद्ध योगी ही महायोगी जी के गुरु बने, लेकिन उनहोंने महायोगी जी के जन्म लेते ही समाधी तोड़ दी और महायोगी के कुछ बड़ा होने तक प्रतीक्षा करने लगे, इधर शिशु महायोगी का नामकरण हुआ सत्येन्द्र......कुम्भ राशी....शतभिषा नक्षत्र....लेकिन गावं में महायोगी जी की दादी को नाम बहुत जटिल लगा, सत्येन्द्र कहने में बहुत बल लगता था, तो उन्होंने कहा की घर पर ये नाम बिलकुल नहीं चल सकता, मैं इसे सतीश या सत्या कह के बुलाऊंगी....आसान लगता है........फिर
सहमती हुई की असली नाम तो सत्येन्द्र ही होगा.....क्योंकि कुल पुरोहित ने रखा है टाला नहीं जा सकता, पर घर में ये नया नाम भी चलेगा, फिर गांव के बाताबरण में ही महायोगी पलने बढ़ने लगे............................
महायोगी जी के पैतृक गाँव का नाम है "धाराखरी"जो कुल्लू में है, ये गाँव सड़क से तब बहुत ही दूर था, घंटो की सीधी चढ़ाई चढ़ कर ही गाँव के लोग अपने घरों तक पहुंचते थे, खेती ही प्रमुख पेशा था, लेकिन महायोगी जी के पूज्य पिता भारतीय डाक बिभाग में पोस्टमास्टर के पद पर तैनात है, लेकिन पारंपरिक खेती अभी भी प्रचलित हैं, पहाड़ों की अति क्लिष्ट जीवन शैली बड़ों-बड़ों का साहस पस्त कर देती है, लेकिन महायोगी जी की माता खेती बाड़ी के कामों में अति कुशल थी इसी कारण खेत खलियानों में खेलते हुए, महायोगी धीरे-धीरे बड़े होने लगे, यहीं से महायोगी जी के अन्दर "वैदिक कृषि" का अंकुरण हुआ, महायोगी जी के जन्म से पूर्व ही उनके दादा स्वर्गवासी हो चुके थे, इसलिए संयुक्त परिवार जिसमे महायोगी के चाचा भी थे, साथ ही रहते थे और घर की मुखिया थी महायोगी जी की दादी माँ, जिनकी आज्ञा मानों "राज आज्ञा" ही हुआ करती थी, लेकिन उनको महायोगी जी से विशेष स्नेह था, इस तरह एक बड़े परिवार जिसमें कई सदस्य और भी थे के बीच महायोगी जी पले, बस उस गाँव की दो बहुत बड़ी समस्याएँ थी, पहली सड़क, सड़क तब न होने के कारण कई बीमार और घायलों को बचाया नहीं जा सका, लेकिन अब एक कच्चा सड़क मार्ग सन 2009 में ही बन कर तैयार हुया है, साथ ही पानी की समस्या, पानी की दो ही प्राचीन "बाबाड़ियाँ" थी, क्यूंकि पहाड़ों पर कुंए नहीं होते, उनमे से भी एक तो गर्मियों में सूख ही जाती, केवल एक में ही पानी रहता था..................
यही वो पानी की बाबड़ी है जहाँ से महायोगी जी पानी बर्तनों में उठा कर अपने घर ले जाया करते थे....इस बाबड़ी के देवता यक्ष ने कहा है की जब इस गाँव में पाप अधिक हो जाएगा तो वो पानी रोक देंगे....साथ ही इस गाँव में "वनशिरा" नाम के देवता भी रहते हैं.....जो बनो की रक्षा करने वाले देवता माने जाते हैं.....उनका मंदिर भी इसी गाँव में है....तो महायोगी जी ने ऐसा बातावरण बाल्यकाल से देखना समझना शुरू कर दिया था की वे पूर्ण ज्ञान पा सकें.....पारिवारिक पृष्टभूमि यदि देखें तो महायोगी जी के दादा कुलदेवता "श्री शेषनाग जी" की सेवा में ही आजीवन समर्पित रहे.....महायोगी जी का पैतृक घर उनके परदादाओं ने बनाया है.....इतना पुराना होने के बाद भी ये घर अभी तक जीवंत ही है....आइये में आपको इस पहाड़ी शैली के चार मंजिला मकान के दर्शन करवा दूँ..........
बातों-बातों में ये बताना तो मैं भूल ही गया कि जब महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज तीन बर्ष कुछ माह के हुए ही थे कि एक दिन उनके पिता जी के पास एक लम्बे कद का लम्बी दाढ़ी मूछों वाला साधू आया और कहने लगा कि तुम्हारे घर पर एक बालक पैदा हुआ है, जिसके बांये पांव के अंगूठे के नीचे रेखाओं का गोल चक्र है, वो मेरा पिछले जन्म का शिष्य है, मुझे उसे देखना है, तब तक महायोगी जी के माता पिता ने भी बालक के पाँव के नीचे के चक्र को नहीं देखा था, जब देखा तो बहुत ही हैरान हुए और वो साधू कहने लगा कि यह बालक उनको सौंप दिया जाये, भला कोई माता पिता किसी के केवल इतना कहने से अपना बालक सौंप देंगे क्या? उनहोंने साधू को समझाया, लेकिन साधू नहीं माना, जिस कारण दोनों पक्षों में तनातनी हो गयी, अंततः इस बात पर निर्णय हुआ कि बालक साधू को नहीं दिया जायेगा, लेकिन बालक को दीक्षा दे कर साधू का शिष्य बनाया जायेगा, ये साधू कोई और नहीं स्वयं "महागुरु कौलान्तक पीठ शिरोमणि प्रातः स्मरणीय सिद्ध सिद्धांत नाथ जी महाराज" थे, इस तरह तीन वर्ष कि आयु में ही महायोगी जी हिमालय कि सिद्ध परम्परा में दीक्षित हो गए, महागुरु का कोई चित्र नहीं है, केवल एक मात्र रेखाचित्र ही है जिसकी महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज पूजा करते हैं, यहाँ मैं वो चित्र दे रहा हूँ ताकि दादागुरु जी कि छवि का कुछ अनुमान आपको भी हो सके....................
महायोगी बिधिवत दीक्षित हो गए और उनकी गुप्त साधनाएँ तभी से थोड़ी-थोड़ी शुरू हो गयी, यहीं महायोगी जी को मिला महागुरु से टंकारी लिपि, भूत लिपि, देव लिपि आदि का ज्ञान क्योंकि महागुरु हिंदी आदि लिपियाँ नहीं जानते थे इसलिए महायोगी जी को ये लिपियाँ सीखनी पड़ी, योग,ज्योतिष, तंत्र, मंत्र, वास्तु, कर्मकांड, यन्त्र, आयुर्वेद, वेद-पुराण, उपनिषद सहित तंत्र ग्रंथों का महायोगी जी ने क्रमशः अध्ययन किया और सात वर्ष कि छोटी सी अवस्था में महायोगी जी अपने गुरुदेव जी के साथ पहली बार हिमालयों कि श्रृंखलाओं में साधना हेतु गए बस तभी से हिमालय के विराट योगी बनने का सफर शुरू हो गया, महायोगी जी अपने बाल्यकाल में उत्तरांचल जो तब इस नाम से अस्तित्व में नहीं था, सहित जम्मू कश्मीर के क्षेत्रों में स्थित हिमालयों पर अपने गुरु के साथ साधना करने जाते रहे, हिमाचल, लेह लद्दाख, सहित सारे क्षेत्रो कि हिम श्रृंखलाएं बालक महायोगी जी के पावन सान्निध्य कि गवाह बनीं, महायोगी की कठोर साधनाएँ संपन्न होने लगी, उनको घनघोर तप करता देख महागुरु ने उन्हें, अन्य गुरुओं के पास जाने को कहा, फिर महायोगी जी क्रमशः 38 परम दिव्य गुरुओं कि शरण में ज्ञान लेने गए और साधना पथ पर निखरते चले गए, यहाँ ये बताना आवश्यक है कि महागुरु के तीन और शिष्य भी थे जिन सबमें महायोगी जी सबसे छोटे थे, सबसे बड़े गुरु भाई का नाम "किरीट नाथ", फिर "प्रगल्भ नाथ", फिर शंभर नाथ और सबसे छोटे "सत्येन्द्र नाथ", सबसे तीब्र बुद्धि और पूर्व जन्म के तेज के कारण महायोगी जी साधनाओं में निष्णांत होते चले गए, आइये बाल महायोगी जी के दर्शन करें..................
महायोगी जी का ज्ञान इतना विस्तृत है की कोई भी कल्पना नहीं कर सकता, मुझे याद है कि जब मैंने महायोगी जी को पहली बार देखा था, तो सोचा कि ये कैसा युवक है जो इतना बड़ा दावा करता है कि वो हिमालय का योगी है, मन ही मन हँसी आ रही थी, कमजोर शरीर देख कर ऐसा लग रहा था कि कहीं खरोच न लग जाए, क्योंकि महायोगी जी का रंग गोरा होने के कारण वे बिलकुल नाजुक से प्रतीत होते हैं, यही कारण है कि कोई उनको देख कर ये मानने को तैयार नहीं होता कि वो इतने बड़े योगी हो सकते हैं, मैंने तो सोचा था कि जीवन में असली योगी मिल ही नहीं सकता, लेकिन आज जान गया हूँ कि हमारे मन में जो कल्पना है, हम उसे ही ढूढ़ते रहते हैं और वो कल्पना ही होती है उसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं होता, जब मुझे महायोगी जी के साथ हिमालय पर रहने का सौभाग्य मिला तो जान पाया कि महापुरुष कैसे होते हैं, आराम परस्त जीवन जीते-जीते मुझे भी आलोचना करते रहने कि आदत पड़ गई थी, अब पता चला कि कि छोटा सा टिला भी नहीं चढ़ सकते, तो कहाँ महायोगी खून जमा देने वाले हालातों में भी खुश और ऊँचे पर्वतों के शिखरों पे ऐसे सजते हैं कि मानो वो पर्वत बने ही महायोगी जी के लिए हो, ये मेरा सौभाग्य है कि मैं उनका सेवक हूँ, ईश्वर जन्म-जन्म मुझे महायोगी जी के साथ रखे, वास्तविक धर्म को खोजने वालों को जब सब ओर अँधेरा ही अँधेरा दिखने लगा तब इस घनघोर अन्धकार में दैव प्रेरणा से नया प्रकाश हुआ है........
गुरुओं से ज्ञान ले कर व कठोर तप की प्रक्रिया से गुजर कर ही महायोगी जी दिव्य प्रखर सूर्य बन पाए हैं, लेकिन महायोगी जी कि सिद्धियों,तप और साधना की बातों को लोगो से बहुत छुपा कर रखने का प्रयास किया गया, क्योंकि कुल्लू में इस तरह की परम्पराएँ प्रत्यक्ष नहीं हैं, वहां केवल "देउली"नामक धार्मिक लोक परम्परा को ही लोग मानते है, आधुनिक गुरुवाद भी कुछ कथित शहरियों द्वारा ही वहां फैलाया गया, जो विशेषतया अपने किसी गुरु या संगठन के प्रचार के लिए वहां आये थे, जिन्हें वास्तविकता का भान ही नहीं लेकिन समझते है की वो अध्यात्म में सर्वोपरि हो गए, लेकिन शायद ये सब कहने का अधिकार मुझे महायोगी जी नहीं देंगे, वो कहते हैं की सबको ईश्वर नें उनके स्तर के अनुरूप ही गुरु भी दिए होते हैं, अगर गुरु का स्तर ज्यादा ऊँचा हो जाए तो शिष्यों को गुरु ही ढोंगी लगने लगता है, इसलिए केवल उच्चकोटि का साधक बिना कुछ बोले ही समझ जाता है, कुल्लू की घाटियों में दिव्य साधक केवल गुप्त रूप से ही साधक ऐसी साधनाओं को करते है, लोग योगी हो जाने को अच्छा नहीं मानते, लेकिन धीरे धीरे लोगो को ये बात पता चल गई, महायोगी जी कभी जंगलों में कभी ऊँचे पर्वतों पर होते हैं, जहाँ कुछ गड़रियों ने उनको देख लिया था और उनहोंने ही ये रहस्य जनता के सम्मुख खोला, धीरे धीरे नृत्य,गायन,श्रृंगार सहित.......हठ योग.......वेद वेदांग में पारंगत हो महायोगी जी 64कलाओं में संपन्न हो गए और इस दौरान महायोगी जी की अनेक सिद्ध योगियों से मुलाक़ात हुई, जिनसे सत्संग का लाभ भी महायोगी जी को प्राप्त हुआ, लेकिन हिमालयों में रह पाना आसान नहीं था और प्रकृति के इतने विरुद्ध जा कर रहने के कारण महायोगी जी का स्वभाव बहुत ही उग्र हो गया, लम्बे समय तक अकेले रहने के कारण वे ज्यादातर गंभीर दिखने लगे बर्फ का सामना कर पाना सरल नहीं होता यदि आपको लम्बे समय तक वहां अकेला रहना पड़े, ऐसे में महायोगी जी को महागुरु ने दी "महाचंद्रायण"पूर्ण करने की आज्ञा, ये तो जले पर नमक जैसा हो गया, क्योंकि "महाचंद्रायण"का अर्थ होता है, दस माह सोलह दिन तक अपने अतिरिक्त किसी दूसरे मानव को न देखना और निर्जन हिमालय पर बिना बस्त्रों के दिगम्बर अवस्था में रहना और आपको जान कर हैरानी होगी की तब महायोगी जी की आयु केवल 14वर्ष थी और कुछ ही समय पहले महायोगी जी भयंकर जहर के प्रभाव को झेल चुके थे.................
दरअसल महायोगी जी के गुरुभाइयों से महायोगी जी बहुत आगे हो चुके थे और वो आयु में महायोगी जी से काफी बड़े भी थे, इसलिए उनके मन में कलियुग का क्षणिक प्रवेश हो गया, ईर्ष्यावश उनहोंने एक शाम महायोगी जी की सब्जी में पहाड़ी "काला महुरा"नाम का एक भयंकर जंगली औषधि का पौधा डाल दिया, जो वास्तव में कालकूट नाम का विष होता है, अबोध महायोगी अपने सभी बड़े गुरु भाइयों को बहुत प्यार करते थे और वे इस तरह के कृत्य की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, उनहोंने सब्जी के साथ साथ विष का सेवन कर लिया और भोजन करने के कुछ ही समय बाद महायोगी जी के पेट में बहुत तेज दर्द होने लगा, वो असहनीय पीड़ा इससे पहले कि ठीक हो पाती या उस पर महायोगी जी नियंत्रण करते, खून की उल्टियाँ होने लगी, दुर्भाग्यवश उसी दिन महागुरु भी साधना के लिए दूसरे पर्वत पर गए हुए थे, महायोगी कि ऐसी हालत देख कर गुरुभाइयों को बड़ा पश्चाताप हुआ, उनहोंने महायोगी को बता दिया कि उनहोंने केवल तंग करने के उद्देश्य से ये काम किया था, क्योंकि महायोगी आयुर्वेद के ज्ञाता थे वो जान गए कि अब तो जिन्दा बच पाना मुशिकल ही है, वो अपने माता पिता को याद करने लगे, तभी उनके एक गुरु भाई "शंभर नाथ" ने उनको पीठ पर उठाया और रात भर चल कर महायोगी जी को सैंज नामक स्थान तक पहुँचाया, जहाँ से महायोगी जी अपने घर पहुंचे और फिर कुल्लू अस्पताल में दाखिल करवा दिए गए, बचने कि उम्मीद कम होने के कारण उनको चंडीगढ़ भेज दिया गया, रास्ते में महायोगी "कोमा"में चले गए उनके साथ उनके माता पिता थे, ये तो भला हो कि महायोगी जी ने सब्जी का स्वाद अच्छा न होने के कारण उसे पूरा नहीं खाया, अन्यथा दो घंटों में ही ब्रह्मलीन हो जाते, क्योंकि उत्तरी भारत में दिल्ली से पहले चंडीगढ़ ही बड़ा अस्पताल वाला स्थान है, वहीँ महायोगी जी को होश आया, तो उनहोंने अपने आप को जीवित पाया..
हालाँकि ये बात माता-पिता से छुपा कर रखी गयी, लेकिन पूज्या बहन मञ्जूषा जी ने अब महायोगी जी कि उपचार के दौरान बनी पूरी फाइल अपने पास सुरक्षित रख ली है, महायोगी जी कि जान तो बच गई लेकिन नयी समस्या पैदा हो गयी, उनको तभी से ले कर आज तक शरीर के किसी भी भाग में कोई न कोई समस्या रहती ही है, लेकिन प्रमुख समस्या तो ये थी कि जहाँ उनको कोई चोट लगती वहां से खून बहता ही रहता वो बंद ही नहीं होता था, इस समस्या का निदान स्वयं महायोगी जी के दिव्य आयुर्वेद गुरु "पूज्य श्री वेद मुनि जी महाराज" नें आयुर्वेदिक औषधियों से किया, गिरते स्वास्थ्य को महायोगी जी ने योग साधना से नियंत्रि कर रखा है, इसी बीच दो बहुत ही बुरी घटनाएं हुईं, जिन्होंने महायोगी जी पर बहुत नकारात्मक प्रभाव डाला, महायोगी जी के पैतृक घर में एक गाय थी जिसे महायोगी जी अक्सर घास डालते, पानी डालते और अपने हाथों से सहलाते थे और गौ माता भी बालक का प्रेम देख कर चुपचाप खड़ी रहती, महायोगी कभी सींगो से खेलते कभी पूंछ से, लेकिन एक दिन सुबह दादी जी ने बताया कि मैंने गांव से कुछ लोग बुलवाए हैं, गाय मर गयी तो वो दूर नाले में दवा देंगे, उनहोंने वैसा ही किया, चुप चुप कर महायोगी जी भी उनको देखने गए, उनहोंने गाय को दवाया नहीं बस नाले में फेक दिया, घर पर महायोगी बता न सके, अन्यथा पूछा जाता कि तुम वहां क्या करने गए थे, दूसरे दिन दोपहर को महायोगी फिर उसी स्थान पर पहुंचे, तो देखा मरी गौ को गिद्ध नोच रहे हैं, इस बात से उनको बहुत परेशानी हुई, अब वो रोज वहां जाने लगे, मुह पर कपडा रख कर सड़ांध से बचने का प्रयास करते, अंत में केवल गौ का अस्थि पिंजर ही रह गया, बहुत ही भयानक अनुभव था, जिस गौ माता का दूध पिया वो ऐसी हो गयी, जब बुरा होना हो तो साथ ही होता है, अपने घर पर ही महायोगी चिड़ियों को दाना डालते थे, एक दिन उसी स्थान पर एक मरी चिड़िया दिखी, अब महायोगी विचलित हो गए, उन्होंने महागुरु के पास जाने का मन बनाया...
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Informations about Dakshin Kali has been given earlier. This visual is on "Devi Dakshin Kali" mantra and other information as per Kaulachar tradition. "Ishasputra-Kaulantak Nath" himself is explaining about distinction of Dakshin Kali mantra in Kaula tradition. We present the video at your service, this rare video. Kaulantak Peeth Team - Himalaya .
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Please refuse from abusive comments in this part. This is Himalaya Nath (Lord of Himalaya) Yogi tradition. They're very well respected! The sadhnas performance must be done by diksh (initiation by Guru Ji or the advanced disciples). These serve only as information for fellow non-Indian "national" Hindu friends. It concerns not with other religions. So, please do not promote other religions in this site.
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Information on soul (atma)... This is a complicated subject. Maha Yog explains the topic with the evidences from Upanishads and Purans...
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Saint Dnyanesvar on Lord Shiva and Shakti (Cosmos Energy)...
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Shiva is the Lord of the Universe, and the Lord of all living beings, and Shakti is his consort and driving force. Shiva and Shakti are the universal parents, and all those who propitiate with a pure mind are sure to triumph in their endeavors and also realize them the ultimate truth of existence. As the popular prayer to the Divine Mother goes, she gives all auspiciousness and fulfills every desire of the devotee. This album brings you a sheaf of the most powerful holy chants and hymns addressed to Shiva and Shakti. From Vedic hymns (Sri Rudram) to sacred paeans attributed to great sages (Shankara's Annapoornaashtakam), this collection contains Sanskrit verses brimming with divine vibrations. Various attributes of Shiva as embodied in Nataraja, Rudra, Dakshinamurthy and Ardhanareeswara are effectively invoked, even as we worship Shakti in her benign, ferocious and auspicious aspects. Well-versed Pandits have rendered these chants with perfect diction in the traditional style. Touch the soul of Indian through these powerful hymns and rejuvenate your soul.
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The power and glory of Lord Shiva pervades the cosmos and shines as consciousness in the hearts of all beings. To appewciare the divine attributes of Shiva and worship Him in the traditional manner is to attain victory in all endeavors and ultimately realise the true lord in the heart. Siva is the Supreme Being for whom even aakaasha, the subtlest of elements is a symbol. As the Vedic Rudra, he destroys darkness and evil that stand in the way of divine realization. As Dakshinamurthy, He is the supreme teacher and blesses devotees with ripeness, wisdom and mastery. As Ardhanareeswara, He is the One who shows perfect harmony between the seemingly opposite male and female elements and blesses devotees with marital bliss and happiness. As Nataraja, the dancing lord of Chidambaram, he signifies the dance of divine energy in the cosmos and in our hearts, As Maarabandhu, Shiva is the protector on the part, and function as our armour during journery. As Kaalabhairava, He helps devotes make the best use of their time and achieve the purpose of human life. As jyothrilinga, or lingas of light he manifests Himslef in various divine centres and blesses worshippers with bliss and knowledge. As Namashivaaya, the five-syllabled mantra, he is the way and guide to divinity. As Mrityunjaya, He blesses devotees with heart and long life and confers immortality. This CD comprising powerful hymns of the glorious manifestation of Lord Shiva is a sure way of unlocking the divine power and blessings of Lord Shiva.
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Yatra Katasraj Pakistan (Lord Shiva Temple)
Director: Naresh Aggarwal
Katasraj Temple is a Hindu Temple situated in Katas village in the Chakwal district of Punjab in Pakistan. Dedicated to Shiva, the temple has existed since the days of Mahabharat and the Pandava brothers spent a substantial part of their exile at the site.